निबंध - आत्मत्याग
बालकृष्ण भट्ट आत्म-निर्भरता के समान आत्म-त्याग भी देश के कल्याण का प्रधान अंग है। हमारे देश में आत्मत्याग का बीज भी वैसा ही क्षीण हो गया है जैसा आत्म-निर्भरता का। अचरज है जहाँ के इतिहासों में दधिचि, शिवि, हरिश्चन्द्र, बलि, कर्ण इत्यादि महापुरुषों के अनेक उदाहरण से आत्म-त्याग की कैसी उत्कर्षता दिखाई गई है, जिन महात्माओं ने दूसरों के लिए अपने अमूल्य जीवन का भी कुछ मोल न समझा वहाँ के लोग अब कहाँ तक स्वार्थपरायण पाये जाते हैं कि जिसकी हद्द नहीं है। बहुधा बेटा भी बाप के मुकाबिले तथा बाप बेटा के मुकाबिले किसी बात में जरा अपना नुकसान नहीं बर्दाश्त किया चाहता। इस अंश में सीधे-सादे हमारे पुराने ढर्रे वाले फिर भी सराहना के लायक हैं जिनके शील संकोच से, कभी को धर्म के ख्याल से किसी न किसी रूप में आत्मत्याग की जड़ नहीं टूटी वरन् कुछ न कुछ इसकी वासना एक तरह पर फिसलती हुई चली जा रही है। नई तालीम तो आत्मत्याग के लिये मूलोच्छेदी कुठार हुई। हुआ चाहे जो इसके बानी-मुबानी है उनमें जब यहाँ तक स्वार्थपरता है कि स्वार्थ के पीछे अन्धे दया, सहानुभूति और न्याय को बहुत कम आदर...