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‘जबान’ निबन्ध का सार

आधुनिक हिंदी साहित्य में निबंध-विधा के प्रवर्तक माने जाने वाले श्रेष्ठ निबंधकार बालकृष्ण भट्ट जी द्वारा रचित निबंध ‘ जबान ’ को उनके उत्कृष्ट ललित निबंधों की श्रेणी में रखा जा सकता है | सन् १८९५ में प्रकाशित यह निबंध आज भी उतना ही प्रासंगिक , नीतिपरक और संदेशपरक है | जितना भारतेन्दु-युग में था | आज आधुनिक उपभोक्तावादी दौर में मानव जीवन , संघर्षो , द्वेष , कलेश , स्वार्थ , लालच , धोखा , शोषण आदि से भरा है ऐसे में , मानव की जीभा उसके लिए कितनी उपयोगी और हितकारी हो सकती है तथा जबान पर संयम रखकर कैसे वह इन विपरीत परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल बना सकता है | इसकी शिक्षा हमें इस निबंध से मिलती है | भट्ट जी ने इस निबंध के माध्यम से मानव शरीर के समस्त कर्मेन्द्रियों , नाक , कान , आँख , त्वचा  में से जीभा नामक इन्द्री के महत्व और विशेषता को अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से विश्लेषित करते हुए उसे इन सभी में उत्कृष्ट एवं  उभयनिष्ठ सिद्ध कर , अपने ज्ञान की प्रौढ़ता एवं व्यापक्ता की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति की है | उन्होंने अपने जीवन के व्यक्तिगत अनुभवों को आधार बनाकर ‘ जबान ’ जैसे साधारण विषय को जि...

आचरण की सभ्यता-सरदार पूर्ण सिंह

विद्या, कला, कविता, साहित्‍य, धन और राजस्‍व से भी आचरण की सभ्‍यता अधिक ज्‍योतिष्‍मती है। आचरण की सभ्‍यता को प्राप्‍त करके एक कंगाल आदमी राजाओं के दिलों पर भी अपना प्रभुत्‍व जमा सकता है। इस सभ्‍यता के दर्शन से कला, साहित्य, और संगीत को अद्भुत सिद्धि प्राप्‍त होती है। राग अधिक मृदु हो जाता है; विद्या का तीसरा शिव-नेत्र खुल जाता है, चित्र-कला का मौन राग अलापने लग जाता है; वक्‍ता चुप हो जाता है; लेखक की लेखनी थम जाती है; मूर्ति बनाने वाले के सामने नये कपोल, नये नयन और नयी छवि का दृश्‍य उपस्थित हो जाता है। आचरण की सभ्‍यतामय भाषा सदा मौन रहती है। इस भाषा का निघण्‍टु शुद्ध श्‍वेत पत्रों वाला है। इसमें नाममात्र के लिए भी शब्‍द नहीं। यह सभ्‍याचरण नाद करता हुआ भी मौन है, व्‍याख्‍यान देता हुआ भी व्‍याख्‍यान के पीछे छिपा है, राग गाता हुआ भी राग के सुर के भीतर पड़ा है। मृदु वचनों की मिठास में आचरण की सभ्‍यता मौन रूप से खुली हुई है। नम्रता, दया, प्रेम और उदारता सब के सब सभ्‍याचरण की भाषा के मौन व्‍याख्‍यान हैं। मनुष्‍य के जीवन पर मौन व्‍याख्‍यान का प्रभाव चिरस्‍थायी होता है और उसकी आत्मा का एक अं...

कुटज- हजारी प्रसाद द्विवेदी

कहते हैं , पर्वत शोभा-निकेतन होते हैं। फिर हिमालय का तो कहना ही क्‍या। पूर्व और अपार समुद्र - महोदधि और रत्‍नाकर - दोनों को दोनों भुजाओं से थाहता हुआ हिमालय ' पृथ्‍वी का मानदंड ' कहा जाय तो गलत क्‍यों है ? कालिदास ने ऐसा ही कहा था। इसी के पाद-देश में यह जो श्रृंखला दूर तक लोटी हुई है , लोग इसे ' शिवालिक ' श्रृंखला कहते हैं। ' शिवालिक ' का क्‍या अर्थ है ? ' शिवालक ' या शिव के जटाजूट का निचला हिस्‍सा तो नहीं है ? लगता तो ऐसा ही है। शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी , नीरस और कठोर हो सकती है। शिव की लटियायी जटा ही इतनी सूखी , नीरस और कठोर हो सकती है। वैसे , अलकनंदा का स्रोत यहाँ से काफी दूरी पर हैं , लेकिन शिव का अलक तो दूर-दूर तक छितराया ही रहता होगा। संपूर्ण हिमालय को देखकर ही किसी के मन में समाधिस्‍य महादेव की मूर्ति स्‍पष्‍ट हुई होगी। उसी समाधिस्‍य महोदव के अलक-जाल के निचले हिस्‍से का प्रतिनिधित्‍व यह गिरि श्रृंखला कर रही होगी। कहीं-कहीं अज्ञात नाम-गोत्र झाड़-झंखाड़ और बेहया-से पेड़ खड़े दिख अवश्‍य जाते हैं , पर और कोई हरियाली नहीं। दूब तक सूख गई है। का...

निबंध - आत्मत्याग

बालकृष्ण भट्ट  आत्‍म-निर्भरता के समान आत्‍म-त्‍याग भी देश के कल्‍याण का प्रधान अंग है। हमारे देश में आत्‍मत्‍याग का बीज भी वैसा ही क्षीण हो गया है जैसा आत्‍म-निर्भरता का। अचरज है जहाँ के इतिहासों में दधिचि, शिवि, हरिश्‍चन्‍द्र, बलि, कर्ण इत्‍यादि महापुरुषों के अनेक उदाहरण से आत्‍म-त्‍याग की कैसी उत्‍कर्षता दिखाई गई है, जिन महात्‍माओं ने दूसरों के लिए अपने अमूल्‍य जीवन का भी कुछ मोल न समझा वहाँ के लोग अब कहाँ तक स्‍वार्थपरायण पाये जाते हैं कि जिसकी हद्द नहीं है। बहुधा बेटा भी बाप के मुकाबिले तथा बाप बेटा के मुकाबिले किसी बात में जरा अपना नुकसान नहीं बर्दाश्‍त किया चाहता। इस अंश में सीधे-सादे हमारे पुराने ढर्रे वाले फिर भी सराहना के लायक हैं जिनके शील संकोच से, कभी को धर्म के ख्‍याल से किसी न किसी रूप में आत्‍मत्‍याग की जड़ नहीं टूटी वरन् कुछ न कुछ इसकी वासना एक तरह पर फिसलती हुई चली जा रही है। नई तालीम तो आत्‍मत्‍याग के लिये मूलोच्‍छेदी कुठार हुई। हुआ चाहे जो इसके बानी-मुबानी है उनमें जब यहाँ तक स्‍वार्थपरता है कि स्‍वार्थ के पीछे अन्‍धे दया, सहानुभूति और न्‍याय को बहुत कम आदर...

अज्ञेय का रचना संसार

                             ए क घंटे में प्रभाकर जब अपने बड़े कोट के नीचे भरा हुआ 45 बोर का रिवाल्वर लगाकर, जेब में पड़े हुए गोलियों के बटुए को हाथ से छूकर, एक बार शीशे में अपना प...